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क़ौम, क़ौमें

ता’अर्रुफ़:

क़ौम एक बड़ी इन्सानी जमा’अत है जो किसी तरह की सरकार के ताबे’ रहती है। एक क़ौम के लोगों के बुज़ुर्ग अक्सर एक ही होते हैं और एक ‘आम क़ौमियत रखते हैं|

  • “क़ौम” ‘आम तौर पर ता’रीफ़ शुदा तहज़ीब और ‘इलाक़ाई हुदूद है।
  • किताब-ए-मुक़द्दस में “क़ौम” कोई मुल्क (जैसे मिस्र, इथोपिया) हो सकता है लेकिन ‘आम तौर में लोगों की जमा’अत के बारे में होता है, ख़ास करके जमा’ में हो तब। लिहाज़ा मज़मून पर ध्यान देना ज़रूरी है
  • किताब-ए-मुक़द्दस में जिन क़ौमों का ज़िक्र किया गया है उसमें इस्राईली, फ़िलिश्ती, अश्शूरी, बाबुली, कना’नी, रोमी और यूनानी और दीगर हैं।
  • कभी-कभी “क़ौम” लफ़्ज़ ‘अलामती शक्ल में काम में आया है जो किसी ख़ास क़बीले के बुज़ुर्गों के बारे में है, जैसे रिब्क़ा से ख़ुदा ने कहा था कि उसके पैदा होने वाले बेटे दो “क़ौमें” होंगे जो आपस में लड़ते रहेंगे। इसका तर्जुमा हो सकता है, “दो क़ौमों के रहनुमा” या “दो क़बीलों के बुज़ुर्ग ”।
  • जिस लफ़्ज़ का तर्जुमा “क़ौम” किया गया है उस लफ़्ज़ का इस्ते’माल कभी-कभी ग़ैरक़ौमों के लिए भी किया जाता है या उन क़बीलों के लिए जो यहोवा की ‘इबादत नहीं करते। मज़मून से इसका मतलब ज़ाहिर हो जाता है।

तर्जुमे की सलाह:

  • मज़मून पर मुनहस्सिर, “क़ौम” लफ़्ज़ का तर्जुमा “क़बीलों” या “लोगों ” या “मुल्क” किया जा सकता है।
  • अगर किसी ज़बान में “क़ौम” के लिए इन सब अलफ़ाज़ से अलग कोई लफ़्ज़ है तो किताब-ए-मुक़द्दस में जहां भी यह लफ़्ज़ आता है वहां उस लफ़्ज़ का इस्ते’माल किया जा सकता है, जब तक कि वह हरएक मज़मून में क़ुदरती और सही है।
  • जमा’ लफ़्ज़ “क़ौमों” का भी तर्जुमा “लोगों की जमा’अत” किया जा सकता है।
  • कुछ मज़मूनों में इस लफ़्ज़ का तर्जुमा “ग़ैर-क़ौम” या “ग़ैर यहूदी” किया जा सकता है।

(यह भी देखें:अश्शूर, बाबुल, कना’न, ग़ैर-क़ौम, यूनानी, लोगों की जमा’अत, फ़िलिश्ती, रोम)

## किताब-ए-मुक़द्दस के बारे में:##

शब्दकोश:

  • Strong's: H249, H523, H524, H776, H1471, H3816, H4940, H5971, G246, G1074, G1085, G1484