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ज़मीर,’अक़्ल

ता’अर्रुफ़:

ज़मीर इन्सान की सोच का हिस्सा है जिसके ज़रिये ख़ुदा उसे होशियार करता है जब वह कुछ गुनाह करता है |

  • ख़ुदा ने इन्सान को ‘अक़्ल दिया है कि वह सही और ग़लत में फर्क़ कर पाए।
  • जो इन्सान ख़ुदा के हुक्म मानता है उसके लिए कहा जाता है कि उसकी ‘अक़्ल “पाक” या “साफ़” या “खालिस ” है।
  • अगर इन्सान का ज़मीर साफ़ है तो इसका मतलब है कि वह किसी भी गुनाह को छिपा नहीं रहा है |
  • अगर इन्सान अपने ज़मीर की बात न सुने और गुनाह करते वक़्त उसे गुनाह का इल्म न हो तो इसका मतलब है कि उसका ज़मीर ग़लत काम के लिए हस्सास नहीं है। किताब-ए-मुक़द्दस इसे दागा गया ज़मीर कहती है, जिस पर ऐसा निशान लगा है जैसा गर्म लोहे से दागा जाता है। ऐसे ज़मीर को “बे हिस” या “गन्दा” कहा जाता है।
  • इस लफ़्ज़ के मुमकिन तौर से तर्जुमे हो सकते हैं, “रूहानी नेक रहनुमा ” या “नेक ख़्याल”

किताब-ए-मुक़द्दस के बारे में:

शब्दकोश:

  • Strong's: G4893